मराठा इतिहास का सबसे बड़ा कलंक | Peshwa Narayan Rao Murder Mystery | The Curse of Shaniwar Wada

 

Peshwa Narayan Rao Murder Mystery



कल्पना  कीजिए कि एक शख्स मराठा साम्राज्य का पेशवा है, लेकिन वह खुद अपने घर के अंदर सुरक्षित नहीं है। अपने ही परिवार के लोग एक षड्यंत्र करते हैं और अपने ही पेशवा और भतीजे की हत्या कर देते हैं। जी हां, यह कहानी मराठा इतिहास का सबसे बड़ा कलंक है। 


30 अगस्त 1772 की तारीख को एक पेशवा को उसके अपने ही चाचा रघुनाथ राव ने ही मौत के घाट उतार दिया था। यह पेशवा कोई और नहीं बल्कि सिर्फ 18 साल का एक लड़का था, पेशवा नारायण राव। मराठा इतिहास की यह वो कहानी है जिसने मराठों को गर्त में धकेल दिया था। 


लेकिन रघुनाथ राव ने अपने भतीजे की हत्या क्यों की? क्या यह एक ताकत का खेल था, जैसा पहले से होता आया था, या फिर सत्ता का लालच जिसने रघुनाथ राव को अंधा कर दिया था? यह सब जानेंगे हम इस लेख में।


दोस्तों, पेशवाई मराठा इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण कुर्सी थी। इस पर बैठने वाला कोई भी शख्स मराठों में सबसे ताकतवर बन सकता था। लेकिन इस कुर्सी की एक दिक्कत थी, यह कुर्सी एक ही परिवार के पास लंबे समय से थी। 


जाहिर है कि इस परिवार के कई दुश्मन भी खड़े हो गए कुर्सी के इस लालच में। सबसे बड़ा नाम था पेशवा रघुनाथ राव। एक काबिल मिलिट्री कमांडर, रघुनाथ राव ने 35 सालों तक कोशिश की कि वह पेशवा की कुर्सी को पा जाए। लेकिन हर कदम पर किस्मत ने उन्हें ऐसा झटका दिया कि वह अपने ही भतीजे की हत्या करने पर उतारू हो गए।


आपको शायद यकीन ना हो, लेकिन जिनकी हत्या रघुनाथ राव ने की, उनको संभालने की शपथ भी रघुनाथ राव ने ही ली थी। यह शपथ कैसे एक बड़ा षड्यंत्र बन गई, उसकी कहानी को जानने के लिए हमें शुरू से इस कहानी को जानना होगा।

पानीपत की लड़ाई और उसके परिणाम

साल 1761 में पानीपत की लड़ाई हुई। इस लड़ाई में मराठों की भीषण हार हुई। हार इतनी भयानक थी कि मराठों के कई बड़े सरदार इस युद्ध में मारे गए। इसमें पेशवा बालाजी बाजीराव, जिन्हें नाना साहब भी कहा जाता है, के बेटे और उनके भतीजे भी शामिल थे, जिनका नाम सदाशिवराव भाऊ था। 


इस हार से पेशवा बालाजी बाजीराव को इतना गहरा धक्का पहुंचा कि वह सदमे में चले गए। इस सदमे के चलते कुछ ही दिनों में यानी 23 जून 1761 के दिन उनकी मृत्यु हो गई। अब बालाजी बाजीराव के दो बेटे बचे थे: माधव राव और नारायण राव। सबसे बड़ा बेटा होने की वजह से मराठा पेशवा की कमान आई उनके बड़े बेटे माधव राव के पास।


जब माधवराव पेशवा बने, तो उनकी उम्र मात्र 16 साल थी। ऐसे में उन्हें मराठा साम्राज्य को संभालने में दिक्कत होती। इसलिए यहां पर एक नए कैरेक्टर की एंट्री होती है जिनका नाम था रघुनाथ राव। रघुनाथ राव असल में पेशवा नाना साहब के ही भाई थे, लेकिन वह पेशवा नहीं बन सकते थे। 


अब यहां समस्या यह थी कि रघुनाथ राव शानदार मिलिट्री कमांडर, अच्छे एडमिनिस्ट्रेटर और बहुत ही शानदार काबिलियत वाले नेता थे। लेकिन इन सारी खूबियों के बाद भी उन्हें पेशवा की सेवा करनी थी, जो कि मात्र 16 साल का था।


पानीपत की जंग के बाद मराठों के बीच पेशवाई को लेकर ऐसी ही बातें होने लगी थीं। रघुनाथ राव या जिन्हें प्यार से राघोबा भी कहते थे, वह अपने आप को पेशवा का असली हकदार मानने लगे थे। लेकिन फिलहाल तो उन्हें माधवराव के हुक्म को मानना था। 

पेशवा का पद और परिवारिक संघर्ष

माधवराव छोटे थे, लेकिन थे बहुत काबिल। उन्होंने अपनी मेहनत और समझदारी के दम पर पानीपत की जंग का दिया जख्म काफी हद तक भर दिया। उनके काल में मराठा साम्राज्य फिर से अपने पुराने स्वरूप में वापस आ गया।


इस काम में उनकी मदद रघुनाथ राव ने की थी। पहले तो दोनों के बीच का काफी अच्छे संबंध थे, लेकिन रघुनाथ राव और उनके बीच युद्ध की नीति को लेकर अनबन हो गई। इसी अनबन के बीच रघुनाथ राव ने अपने ही पेशवा यानी माधव राव के खिलाफ साजिशें रचनी शुरू कर दी। 


इस साजिश में उनके साथ उनकी पत्नी आनंदीबाई बराबर की हकदार थी। क्योंकि आनंदीबाई को भी लगता था कि उनके पति को उनका हक नहीं मिला। इसी वजह से रघुनाथ राव ने माधवराव की बातों के खिलाफ जाकर काम करना शुरू कर दिया।


इसका अंत यह हुआ कि रघुनाथ राव और माधव राव के बीच एक तनाव का रिश्ता बन गया, जो कि एक लड़ाई में बदल गया। दोनों के बीच एक युद्ध हुआ, जिसमें रघुनाथ राव की हार हो गई। मजबूरी में माधव राव को अपने ही चाचा को नजर बंद करना पड़ा। 


वह अपने चाचा को कोई सजा नहीं देना चाहते थे। इसलिए 10 जून 1768 के दिन रघुनाथ राव को पेशवा के महल शनिवारवाड़ा में कैद कर लिया। रघुनाथ राव को कैद करने के बाद पेशवा माधव राव ने दोबारा सभी मराठा सरदारों को  साथ मिलाया और एक बार फिर से दिल्ली तक जाकर मराठा साम्राज्य का झंडा फहरा दिया।


लेकिन दोस्तों, माधवराव और मराठा साम्राज्य की किस्मत बहुत खराब थी। साल 1770 में पेशवा माधव राव को टीबी की बीमारी हुई। उस बीमारी के चलते 2 साल बाद 1772 में उनकी मृत्यु हो गई। लेकिन मृत्यु से पहले उन्होंने एक काम किया। 


काम यह था कि अपने चाचा राघोबा को उन्होंने रिहा कर दिया। इसके पीछे माधव राव का प्लान यह था कि उनके अपने भाई नारायण राव उस वक्त छोटे थे। इसलिए उनको एक प्रोटेक्टर, एक संरक्षक की जरूरत थी। माधव राव को लगा कि राघोबा नारायण राव को संभाल लेंगे। 


इसलिए माधवराव ने पूरे परिवार के सामने शपथ दिलाई कि रघुनाथ राव उनकी मृत्यु के बाद नारायण राव का ख्याल रखेंगे। फिर रघुनाथ राव ने भी ऐसी शपथ ली और नारायण राव की रक्षा करने का वचन दिया।


अब दोस्तों, रघुनाथ राव के सामने दिक्कत यह थी कि उनके सामने फिर से एक और पेशवा खड़ा था, जो कि बेहद कम उम्र का था। फिर से एक 17 साल के बालक के अधीन रहते हुए ही उन्हें मराठा साम्राज्य की सेवा करनी थी। 


जाहिर है कि रघुनाथ राव के अंदर फिर से लालच आ गया। सत्ता को पाने की चाहत में वो फिर से अपनी चालें चलने लगे और इस साजिश में जुट गए कि किसी भी तरह से बस नारायण राव को गद्दी से हटा दिया जाए।


रघुनाथ राव इसके लिए सही साथी की फिराक में लग गए। जल्दी ही उन्हें एक ऐसा साथी मिल भी गया और यहां से हमारी कहानी में एंट्री होती है सुमेर सिंह गर्दी की। सुमेर सिंह गर्दी पेशवा के गार्ड ग्रुप का लीडर हुआ करता था, लेकिन वह खास आदमी रघुनाथ राव का था। 


रघुनाथ राव ने सुमेर सिंह को लालच दिया, उसे अपने साथ मिलाया, उसे लाखों रुपए और तीन किलो की सूबेदारी का लालच देकर नारायण राव की हत्या करने के लिए मना लिया।


लेकिन इस कहानी में एक पेच है। इतिहास में कुछ लोग मानते हैं कि नारायण राव की हत्या असल में एक हत्या नहीं थी, बल्कि एक गलती थी, जिसकी वजह से उनकी जान चली गई। 


दरअसल, इस दूसरे किस्से में कहा जाता है कि रघुनाथ राव ने जब सुमेर सिह गर्दी से हाथ मिलाया, तो एक पन्ने पर उसके लिए संदेश भिजवाया। इस संदेश में नारायण राव पर होने वाले हमले का विवरण था । साथ ही लिखा था 'ह्याला धरावा' यानी पकड़ लो। 


अब रघुनाथ राव ने यह पत्र अपनी पत्नी आनंदीबाई को दिया ताकि वह इसे गर्दी को दे दे। लेकिन आनंदीबाई अपने पति को पेशवा ना बनाए जाने से और भी ज्यादा गुस्सा थी।


अपने पति को हर हाल में पेशवा देखने के लालच में, उन्होंने किसी भी तरह के रिस्क से बचने की ठानी। इसे इसीलिए आनंदीबाई ने रघुनाथ राव के दिए पन्ने को बदलकर उसमें 'हाला मरावा' यानी मार दो लिखवा दिया। अब यह दोनों बातें कही जाती हैं। 


खैर, किसने मारने को कहा और किसने नहीं, इस पर भले ही अलग-अलग वर्जन हो, लेकिन परिणाम अंत  में सेम रहा। साजिश पूरी तरह से तैयार थी और उसे अंजाम देने के लिए रघुनाथ राव सही मौके का इंतजार करने लगे।


नारायण राव की हत्या

फिर आती है तारीख 30 अगस्त 1773, जब शनिवार वाड़ा में मराठा इतिहास की सबसे कलंकित घटना हुई। 30 अगस्त के दिन पेशवा तड़के सुबह उठे और 108 सीढ़ियां चढ़कर ऊंची पहाड़ी पर बने पार्वती मंदिर में पूजा करने पहुंचे। 


पूजा करने के बाद वह अपने मामा सरदार रास्ते के घर पर रुके और अपनी जागीर और तनख्वा वगैरह के बारे में जानकारी लेने लगे। इस दिन तक पेशवा बने उन्हें सिर्फ 10 महीने हुए थे। थोड़ी देर बाद उन्हें भूख लगी तो मामा से कहा कि दोपहर का खाना खाकर फिर काम किया जाएगा। इस तरह पेशवा शनिवारवाड़ा में चले गए।


यहां उन्होंने खाना खाया और फिर थोड़ी देर आराम करने के लिए अपने कमरे में लेट गए। अभी वह सो ही रहे थे कि अचानक उनके बाहर कमरे के बाहर शोर मचने लगा। पेशवा की नींद टूटी तो उन्होंने अपने सेवक को बुलाकर पूछा कि बाहर क्या हो रहा है। 


पता चला कि उनका गार्ड सुमेर सिंह गर्दी अपने कुछ लोगों के साथ जबरदस्ती शनिवार वाड़ा में घुस आया है। यह सुनकर नारायण राव को थोड़ा शक हुआ और वह भागकर सदाशिवराव भाऊ की विधवा पार्वतीबाई के पास पहुंचे। 


वो पार्वतीबाई के बहुत करीब थे। और पार्वतीबाई ने नारायण राव को जब यह जाना तो उन्होंने छिप जाने को कहा। नारायण राव को लगा कि उनकी जान अब सिर्फ और सिर्फ उनके चाचा रघुनाथ राव ही बचा सकते थे।


इसलिए वह देवघर की तरफ भागे। देवघर में रघुनाथ राव पूजा कर रहे थे। नारायण राव उनसे बोले, "जान बचा लो चाचा!" अभी तक नारायण राव को पता ही नहीं था कि जिनके पास वह जान की भीख मांगने आए थे, वही इस साजिश के कर्ता-धरता थे।


इधर उन्होंने मदद मांगी, लेकिन रघुनाथ राव ने कोई मदद नहीं की। वो वहीं खड़े रहे। इससे पहले पेशवाई साजिश को समझ पाते, सुमेर सिंह गर्दी ने नारायण राव को पकड़ लिया।


अब यहां पर उसी चिट्ठी के आधार पर एक बात कही जाती है कि गर्दी सिर्फ पेशवा को गिरफ्तार करने वाला था। इसीलिए रघुनाथ राव ने सोचा कि नारायण राव बस नाटक कर रहे हैं। लेकिन सुमेर गर्दी ने नारायण राव की गर्दन पर कटार रख दी। 


जब तक वह हालात को संभालते, तब तक सुमेर ने नारायण की गर्दन पर कटार चला दी। इस तरह से 18 साल के पेशवा की हत्या हो गई। इस तरह नारायण, जो शायद पेशवा माधव राव की तरह ही प्रभावशाली पेशवा बन सकते थे, उनकी हत्या ने मराठों को बहुत बड़ा धक्का दिया।


हत्या के बाद के परिणाम

अक्सर सुनने को मिलता है कि नारायण राव में दूरदर्शिता की कमी थी, लेकिन मैं इस बात से सहमत नहीं हूँ । इसकी वजह यह है कि मराठों में इस तरह की बात पहले ज्यादातर देखी नहीं गई थी। गद्दी को लेकर लड़ाइयां होती थीं, लेकिन कोई अपने ही परिवार के किसी शख्स की गद्दी को लेकर हत्या कर देगा, ऐसा नहीं हुआ था। 


इसीलिए बेहद कम उम्र के नारायण राव ने भी कभी सोचा ही नहीं होगा कि उनकी रक्षा करने वाला ही असल में उनका हत्यारा बन जाएगा। उनका खुद का चाचा उनका हत्यारा बन जाएगा।


खैर, जो भी हो, पेशवा की हत्या की खबर जैसे ही बाहर आई, पूरे मराठा साम्राज्य को एक झटका लगा। रघुनाथ राव ने तुरंत खुद को पेशवा घोषित कर दिया, लेकिन जिस पेशवाई के लिए उन्होंने अपने भतीजे की हत्या की, वो पेशवाई उन्हें फिर भी नहीं मिल पाई। 


मराठा सरदारों ने रघुनाथ राव को पेशवा मानने से मना कर दिया। उन दिनों नाना फर्नबस मराठों के बहुत ताकतवर सरदार हुआ करते थे। उन्होंने तुरंत संसद बुलाई, जिसका काम रघुनाथ राव को सजा देना था। उन्होंने रघुनाथ राव के खिलाफ विद्रोह करते हुए उनसे युद्ध किया। युद्ध में रघुनाथ राव की हार हुई और वह तुरंत सूरत की ओर निकल गए।


अब दोस्तों, सवाल उठा कि अगला पेशवा कौन होगा? किस्मत से नारायण राव की पत्नी गंगाबाई उस समय पर गर्भवती थी। उन्होंने अगले साल, साल 1774 में एक बालक को जन्म दिया। यह बालक कोई और नहीं बल्कि माधवराव द्वितीय थे। 


जब ये 40 दिन के हुए, तो नाना फर्नबस ने उन्हें पेशवा की गद्दी पर बिठाकर खुद राज-काज संभाल लिया। पेशवा माधवराव द्वितीय भी आगे चलकर मराठों का नाम रोशन करते हैं।


अब अभी सवाल उठता है इन सबसे अलग रघुनाथ राव का क्या हुआ? वो तो सूरत भागे थे। दोस्तों, रघुनाथ राव ने मराठों के कैंप को छोड़कर ईस्ट इंडिया कंपनी से हाथ मिला लिया। यानी अंग्रेजों से। 


साल 1775 में उन्होंने सूरत में एक संधि की। इस संधि के हिसाब से रघुनाथ राव ने अंग्रेजों को सालसेट और बेसिन दो किले देने का वादा किया और बदले में अंग्रेजों ने रघुनाथ राव को पेशवा की उपाधि दी। इस संधि के बाद रघुनाथ राव ने ईस्ट इंडिया कंपनी से पुड़े पर अटैक करने को कहा। 


इस तरह साल 1775 में एक जंग हुई, जिसमें रघुनाथ राव की हार हुई। इस हार से गुस्सा होकर गवर्नर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स ने सूरत की संधि को रद्द कर दिया। फिर अगले साल यानी 1776 में रघुनाथ राव ने पुर्तगालियों से संधि की कोशिश की, लेकिन वहां से भी उन्हें कोई मदद नहीं मिली।


जिस पेशवा पद के लिए उन्होंने अपने भतीजे की हत्या करवाई, वो पेशवा का पद उन्हें कभी नहीं मिला। उल्टे जो सम्मान व पेशवा के संरक्षक बने रहने पर कमा सकते थे, उस मौके को भी उन्होंने गवा दिया। आखिर में साल 1783 में उनकी मृत्यु हो गई। 


लेकिन इस पूरी साजिश में ईस्ट इंडिया कंपनी को समझ आ गया कि मराठे अभी कमजोर हैं। फिर अंग्रेजों ने मराठों पर शिकंजा कसना शुरू किया, जिसके चलते मराठों और अंग्रेजों के बीच एंगलो मराठा युद्ध शुरू हुए और साल 1818 में आखिरकार मराठा साम्राज्य का अंत हो गया। तो दोस्तों, यह थी कहानी एक पेशवा की हत्या की जिसने आगे चलकर मराठों के अंत की कहानी लिखी। 


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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

  • 1. पेशवा नारायण राव की हत्या के पीछे मुख्य कारण क्या था? पेशवा नारायण राव की हत्या के पीछे रघुनाथ राव का सत्ता का लालच और परिवार में चल रही साजिशें थीं।
  • 2. रघुनाथ राव ने नारायण राव की हत्या के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया? रघुनाथ राव ने अपनी पत्नी आनंदीबाई की भूमिका को भी महत्वपूर्ण माना, जिन्होंने साजिश को बढ़ावा दिया।
  • 3. नारायण राव की हत्या के बाद मराठा साम्राज्य पर क्या प्रभाव पड़ा? नारायण राव की हत्या ने मराठा साम्राज्य को एक बड़ा धक्का दिया और इसके बाद रघुनाथ राव की सत्ता में आने की कोशिशें असफल रहीं।
  • 4. क्या रघुनाथ राव ने अंग्रेजों से हाथ मिलाया? हां, रघुनाथ राव ने अंत में अंग्रेजों से हाथ मिलाया और उनसे पेशवा की उपाधि प्राप्त की।
  • 5. नारायण राव की पत्नी गंगाबाई का क्या हुआ? गंगाबाई ने नारायण राव की हत्या के बाद एक बेटे को जन्म दिया, जो बाद में माधवराव द्वितीय बने।
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